आज आधुनिकता की
दौड़ में फंसे संवेदनहीन परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी या तो आप्रासंगिक हो गये हैं, या फिर वृद्धाश्रमों में भेज दिये गये हैं। अगर
कुछ सौभाग्यशाली बच गये हैं तो अपने घरों के एक कोने में सिमट कर रह गये हैं।
क्योंकि उन्हें अपनी इज्ज़त और सर के ऊपर छत की फ़िक्र है। कहीं जीवन के इस अंतिम
दौड़ में यह सहारा भी उनसे न छीन जाए ।।
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